नई दिल्ली: भारत में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए कार्यरत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को एक नया चेहरा मिल चुका है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश वी. रामासुब्रमण्यम को अब इस आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है, जबकि प्रियंक कानूनगो और बिद्युत रंजन सारंगी को इसके सदस्य बनाया गया है। राष्ट्रपति कार्यालय से इस नियुक्ति का नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया है, लेकिन इस नियुक्ति को लेकर विपक्षी नेताओं की ओर से कुछ गंभीर आपत्तियां उठाई गई हैं।
18 दिसंबर को संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई थी, जिसमें विपक्षी नेताओं मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी भी शामिल थे। इस बैठक के दौरान दोनों नेताओं ने एनएचआरसी के अध्यक्ष और सदस्य के चयन की प्रक्रिया पर कड़ी आपत्तियां जताईं। सवाल उठने लगे हैं कि क्या यह चयन प्रक्रिया वास्तव में निष्पक्ष थी, या फिर कुछ खास राजनीति के तहत यह फैसले लिए गए?
वी. रामासुब्रमण्यम: एक न्यायिक करियर की गौरवमयी यात्रा
अब आइए, जानें कौन हैं वी. रामासुब्रमण्यम और उनके न्यायिक सफर के बारे में। तमिल भाषा के विद्वान, वी. रामासुब्रमण्यम का करियर करीब 40 वर्षों का है। उन्होंने विज्ञान में ग्रेजुएशन किया और फिर मद्रास लॉ कॉलेज से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद वे वकालत करने लगे और 23 वर्षों तक इस क्षेत्र में काम किया। साल 2006 में मद्रास हाईकोर्ट के जज बने, फिर तेलंगाना हाईकोर्ट और हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रहे। सितंबर 2019 में वे सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त हुए और अगले लगभग चार वर्षों तक वहां कार्यरत रहे, जहां उन्होंने कुल 102 महत्वपूर्ण फैसले सुनाए।
उनके फैसलों में नोटबंदी, आरबीआई का क्रिप्टोकरेंसी सर्कुलर, और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों से जुड़े फैसले प्रमुख रहे। उनकी न्यायिक यात्रा को देखते हुए उनकी नियुक्ति पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं।
राहुल और खरगे की आपत्तियां: क्या चयन प्रक्रिया में खामियां थीं?
अब सवाल यह उठता है कि विपक्षी नेता राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे को एनएचआरसी के नए अध्यक्ष और सदस्यों के चयन पर क्यों आपत्ति है। दरअसल, एनएचआरसी के अध्यक्ष की नियुक्ति एक छह सदस्यीय कमिटी द्वारा की जाती है, जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा उपाध्यक्ष, और दोनों सदनों के विपक्षी नेताओं का भी सदस्यता होती है। इस चयन प्रक्रिया के दौरान विपक्षी नेताओं ने दो प्रमुख आपत्तियां उठाईं।
पहली आपत्ति इस चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता को लेकर थी। राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे का कहना था कि चयन समिति ने पहले से तय चीजों के साथ चयन किया और इस प्रक्रिया में पारस्परिक विचार-विमर्श की परंपरा को नजरअंदाज किया। खरगे ने इस पर भी सवाल उठाया कि चयन समिति ने केवल संख्या बल को तरजीह दी, जबकि विविधता और प्रतिनिधित्व को पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।
दूसरी आपत्ति, एक और गंभीर पहलू से जुड़ी थी। राहुल और खरगे का मानना था कि एनएचआरसी के अध्यक्ष का पद उन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो हाशिए पर हैं और जिन्हें अक्सर प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। उनका कहना था कि इस पद पर नियुक्ति में क्षेत्रीय, जातिगत, सामुदायिक और धार्मिक विविधता का ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह चयन प्रक्रिया से आम लोगों का विश्वास उठ सकता है। राहुल और खरगे ने सुझाव दिया था कि अध्यक्ष पद के लिए पारसी समुदाय के रिटायर्ड जस्टिस रोहिंटन फाली नरीमन और ईसाई समुदाय के जस्टिस के. एम. जोसेफ का नाम लिया जाए।
क्या है इस नियुक्ति का राजनीतिक संदर्भ?
यह नियुक्ति विपक्षी नेताओं द्वारा उठाए गए सवालों के बाद राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से और भी जटिल हो गई है। वी. रामासुब्रमण्यम की नियुक्ति के साथ ही विपक्षी दलों ने यह सवाल खड़ा किया है कि क्या इस चयन प्रक्रिया ने लोकतांत्रिक और संस्थागत संतुलन को बनाए रखा है? और क्या इस नियुक्ति से भारत के हाशिए पर पड़े समुदायों के अधिकारों की रक्षा होगी?
जहां एक ओर सरकार इस नियुक्ति को न्यायिक अनुभव और कार्यकुशलता के आधार पर सही ठहरा रही है, वहीं विपक्ष इस पर गंभीर सवाल उठा रहा है। अब देखना यह है कि आगे इस नियुक्ति और चयन प्रक्रिया पर क्या राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आती हैं और क्या सरकार इन आपत्तियों का उचित जवाब देती है।